पाकिस्तान ने भारत से 1965 और 1971 की जंग तब लड़ी थी, जब शीत युद्ध का ज़माना था.
शीत युद्ध में पाकिस्तान अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी गठबंधन का हिस्सा था. शीत युद्ध के दौरान ही 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ ने हमला किया था.
सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार चाहता था और इस्लामी कट्टरपंथियों को सत्ता से दूर रखना चाहता था. दूसरी तरफ़ अमेरिका का अभियान था कि जिन देशों में कम्युनिस्ट सरकारें हैं, उन्हें कमज़ोर किया जाए.
अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ को हराने के लिए पाकिस्तान की मदद ले रहा था. इसके बदले में पाकिस्तान को अमेरिका से आर्थिक और सैन्य मदद मिलती रही.
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अमेरिका की पाकिस्तान से क़रीबी उसकी रणनीतिक ज़रूरत के लिए थी और यह ज़रूरत अंतहीन नहीं थी.
अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान और अमेरिका ने जिन कट्टरपंथियों को आगे बढ़ाया, वही उनके लिए चुनौती बन गए और ये चुनौती आज तक कायम है.
1962 में चीन ने भारत पर हमला किया था. चीनी हमले के क़रीब तीन साल बाद पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया लेकिन उसका आकलन ग़लत साबित हुआ.
तब पाकिस्तान को लगा था कि चीन से जंग के कारण भारत का मनोबल बहुत गिरा हुआ है, ऐसे में उसे हराया जा सकता है. लेकिन पाकिस्तान अपना मक़सद हासिल नहीं कर सका. 1965 की जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान को कोई सैन्य मदद नहीं दी थी लेकिन भारत के प्रति उसका कोई समर्थन नहीं था.
1971 की जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद की थी. यहाँ तक कि अमेरिकी यु्द्धपोत यूएसएस एंटरप्राइज़ वियतनाम से बंगाल की खाड़ी में पहुँच गया था. कहा जाता है कि अमेरिका ने ऐसा सोवियत यूनियन को संदेश देने के लिए किया था कि अमेरिका पाकिस्तान को ज़रूरत पड़ने पर मदद कर सकता है.
हालांकि अमेरिका ने सीधे हस्तक्षेप के लिए कोई आदेश नहीं दिया था लेकिन डिप्लोमैटिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर पाकिस्तान के साथ था.
1971 के अगस्त महीने में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 'इंडिया-सोवियत ट्रीटी ऑफ़ पीस, फ़्रेंडशिप एंड कोऑपरेशन' पर हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते के तहत सोवियत यूनियन ने भारत को आश्वस्त किया कि युद्ध की स्थिति में वो राजनयिक और हथियार दोनों से समर्थन देगा.
1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच 13 दिनों का युद्ध हुआ था. यह युद्ध पूर्वी पाकिस्तान में उपजे मानवीय संकट के कारण हुआ था. इस युद्ध के बाद ही पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना था. यानी पाकिस्तान को भारत दो टुकड़ों में बाँटने में कामयाब रहा था.
पाकिस्तान पश्चिम का सहयोगी था, तब भी भारत के ख़िलाफ़ हर युद्ध में उसे हार मिली. पाकिस्तान को भारत के ख़िलाफ़ न केवल पश्चिम का समर्थन हासिल था बल्कि खाड़ी के इस्लामी देश भी उसके साथ थे. शीत युद्ध ख़त्म होने के क़रीब नौ साल बाद 1999 में पाकिस्तान ने एक बार फिर करगिल में हमला किया और इस बार भी उसे अपने क़दम पीछे खींचने पड़े थे.
भारत दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था
इन तीन युद्धों के बाद से दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है. सोवियत संघ कई हिस्सों में बँट गया और अब रूस बचा है. लेकिन दुनिया दो ध्रुवीय से एक ध्रुवीय हुई और अब चीन दूसरे ध्रुव की मज़बूत दावेदारी कर रहा है.
दूसरी तरफ़ भारत भी दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है. बदलती दुनिया में भारत का भी अपना एक स्थान है लेकिन पाकिस्तान अब भी आर्थिक मोर्चों पर सऊदी अरब, चीन और वैश्विक संस्थाओं पर निर्भर है.
अमेरिका को अब अफ़ग़ानिस्तान में किसकी सरकार है इससे ख़ास मतलब नहीं है. ऐसे में उसे पाकिस्तान की भी पहले जैसी ज़रूरत नहीं है.
दो देशों के संबंध कितने गहरे और पारस्परिक हैं, अब इस बात पर भी निर्भर करता है कि दोनों एक दूसरे की अर्थव्यवस्था में कितना योगदान कर रहे हैं. दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं - अमेरिका और चीन से भारत का द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर के पार है जबकि खाड़ी के अहम देश यूएई से भी भारत का द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर पार हो चुका है. वहीं सऊदी अरब से भी भारत का सालाना द्विपक्षीय व्यापार क़रीब 50 अरब डॉलर पहुँच चुका है.
फ़रवरी 2022 में यूक्रेन और रूस की जंग शुरू होने के बाद रूस से भी भारत का द्विपक्षीय व्यापार बढ़कर 65 अरब डॉलर पार कर चुका है. भारत के तीन सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर और सऊदी अरब या तो पाकिस्तान के दोस्त हैं या दोस्त थे.
लेकिन पाकिस्तान के साथ इन देशों का द्विपक्षीय कारोबार कोई ख़ास नहीं है.
कोई भी देश नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान के लिए भारत जैसे बड़े बाज़ार की उपेक्षा की जाए. जब ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने पर भारत का विरोध नहीं किया तो पाकिस्तान के विश्लेषकों का यही कहना था कि भारत के साथ उसके कारोबारी हित जुड़े हैं.
यहाँ तक कि हिन्दुत्व की छवि वाले के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान बड़े भाई कहते हैं.
शीत युद्ध के बाद बदली दुनिया में भारत की प्रासंगिकता बढ़ी है जबकि पाकिस्तान अपनी पुरानी अहमियत बचाने में भी नाकाम रहा है.
ट्रंप इसी साल जनवरी में दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो लेन-देन के संबंधों को और बढ़ावा मिला. यानी आप अमेरिका से कितना ख़रीदते हैं और कितना बेचते हैं, ये ज़्यादा मायने रखता है न कि शीत युद्ध में कौन साथ था और कौन ख़िलाफ़.
ट्रंप यहां तक चाहते हैं कि रूस से भी संबंध अच्छे हों. लेकिन पाकिस्तान अभी जिस आर्थिक कमज़ोरी से जूझ रहा है, उसमें न ख़रीदने की बहुत गुंजाइश है और न ही बेचने की.
भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं और बढ़ते तनाव को देखते हुए वैश्विक स्तर पर दोनों देशों से शांति वार्ता की अपील की जा रही है. दुनिया भर के देशों की इन अपीलों से एक समझ बन रही है कि किसकी सहानुभूति पाकिस्तान के साथ है और किसकी भारत के साथ जबकि कौन पूरी तरह से तटस्थ है.
गुरुवार रात तुर्की के पर एक पोस्ट में कहा, ''भारत और पाकिस्तान में बढ़ते तनाव को लेकर हम चिंतित हैं. ये तनाव युद्ध में बदल सकता है. मिसाइल हमलों के कारण बड़ी संख्या में आम नागरिकों की जान जा रही है. पाकिस्तान और यहां के लोग हमारे भाई की तरह हैं और उनके लिए हम अल्लाह से दुआ करते हैं.''
अर्दोआन ने कहा, ''पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ से फोन पर मेरी बात हुई है. मेरा मानना है कि जम्मू-कश्मीर में हुए भयावह आतंकवादी हमले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जांच होनी चाहिए. कुछ लोग आग में घी डालने का काम कर रहे हैं लेकिन तुर्की तनाव कम करने और संवाद शुरू करने का पक्षधर है. हालात हाथ से निकल जाने से पहले हम चाहते हैं कि दोनों देशों में संवाद शुरू हो.''
अर्दोआन ने जो कहा है, वह पाकिस्तान की लाइन का समर्थन है.
पाकिस्तान भी मांग कर रहा है कि पहलगाम हमले की जांच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कराई जाए. इसके अलावा अर्दोआन ने केवल पाकिस्तान में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी है और वहां के लोगों को भाई समान बताया है.
अर्दोआन के पास जब से तुर्की की कमान आई है, तब से पाकिस्तान के साथ सैन्य स्तर पर संबंध बढ़े हैं और भारत के साथ दूरियां बढ़ी हैं.
तुर्की और पाकिस्तान दोनों सुन्नी मुस्लिम बहुल देश हैं और दोनों इस्लामी देशों में एकता की बात करते रहे हैं. इसके बावजूद भारत और तुर्की में सालाना द्विपक्षीय व्यापार 10 अरब डॉलर पार कर चुका है जबकि पाकिस्तान से किसी तरह एक अरब डॉलर ही पार हुआ है.
दूसरी तरफ़ सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर गुरुवार को अचानक भारत पहुँचे थे. अदेल अल-जुबैर का यह अघोषित दौरा था. गुरुवार को जुबैर ने भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाक़ात की. कहा जा रहा है कि इसके बाद अदेल पाकिस्तान जाएंगे.
ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराग़ची भी भारत आए थे. ईरानी विदेश मंत्री इससे पहले पाकिस्तान गए थे. अराग़ची का दौरा पहले से ही तय था.
अदेल अल-जुबैर का अचानक भारत आना और पीएम मोदी तक से मिलना असामान्य माना जा रहा है. पीएम मोदी जब सऊदी अरब के दौरे पर थे, तभी पहलगाम में 22 अप्रैल को हमला हुआ था और 26 पर्यटक मारे गए थे. इस हमले के बाद पीएम मोदी ने बीच में ही दौरा छोड़ दिया था.

अदेल अल-जुबैर से मुलाक़ात के बाद भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक्स पर लिखा, ''सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर से बातचीत अच्छी रही. आतंकवाद का दृढ़तापूर्वक मुक़ाबला करने पर भारत की समझ को साझा किया.''
सऊदी अरब ने 30 अप्रैल को एक बयान जारी कर दोनों देशों से शांति की अपील की थी और सभी विवादों को बातचीत से सुलझाने का सुझाव दिया था. सऊदी अरब के बयान से ऐसा कहीं नहीं लगा कि वह किसी एक के साथ खड़ा है.
अब जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ रहा है, तब सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री गुरुवार को भारत पहुँचे थे. पाकिस्तान के लिए हर मुश्किल वक़्त में सऊदी अरब खड़ा रहा है.
वो चाहे 1971 की जंग हो या 1965 की. मई 1998 में पाकिस्तान जब यह तय कर रहा था कि भारत के पाँच परमाणु परीक्षणों का जवाब देना है या नहीं, तब सऊदी अरब ने पाकिस्तान को हर दिन 50 हज़ार बैरल तेल मुफ़्त में देने का वादा किया था.
सऊदी अरब भी शीत युद्ध में पश्चिमी खेमे में ही था और ऐसे में पाकिस्तान के साथ उसकी क़रीबी में कोई असहजता नहीं थी. लेकिन अब दुनिया बदल चुकी है. पाकिस्तान को लेकर पश्चिम का रुख़ भी बदल गया है. भारत पश्चिम के क़रीब हुआ है और पाकिस्तान को लेकर अविश्वास बढ़ा है. ऐसे में पाकिस्तान और सऊदी अरब संबंध भी प्रभावित हुए हैं.
कश्मीर पर सऊदी अरब का रुख़ पाकिस्तान के साथ रहता था लेकिन अगस्त 2019 में भारत ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किया था तो सऊदी अरब का रुख़ बिल्कुल तटस्थ था. तब पाकिस्तान में इमरान ख़ान की सरकार में विदेश मंत्री रहे शाह महमूद क़ुरैशी ने सऊदी की आलोचना भी की थी.
किसके साथ है ईरान?ईरान भी कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की लाइन का समर्थन करता रहा है. यहां तक कि ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई भारत के मुसलमानों को लेकर भी मुखर रहे हैं. लेकिन पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान में बढ़े तनाव को कम करने के लिए ईरान मध्यस्थता की कोशिश कर रहा है. ईरान पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान में उपजे तनाव के बीच किसी भी देश का पक्ष नहीं ले रहा है.
ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराग़ची ने अपने दौरे में विदेश मंत्री एस जयशंकर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से मुलाक़ात की है.
इन मुलाक़ातों के बाद जारी बयान में ईरान के विदेश मंत्रालय ने कहा, ''भारत और ईरान के बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं. दोनों देशों के जॉइंट कमिशन की 20वीं बैठक हुई. दोनों देशों के बीच आर्थिक साझेदारी बढ़ाने का सुनहरा मौक़ा है. चाबहार पोर्ट को लेकर भी कई स्तरों पर बात हुई. इसके अलावा दक्षिण एशिया में स्थिरता और सुरक्षा की अहमियत पर भी ज़ोर दिया गया. भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया तनाव को संवाद के ज़रिए कम करना चाहिए.''
ईरान के विदेश मंत्री ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जिससे एक संदेश गया हो कि ईरान पाकिस्तान या भारत के साथ है. पूरे मामले में ईरान ने अपनी तटस्थता दिखाई है.
ईरान का यह रुख़ तब है, जब इसराइल खुलकर भारत का समर्थन कर रहा है. इसराइल और ईरान की दुश्मनी तो किसी से छिपी नहीं है. भारत में इसराइल के राजदूत कई बार कह चुके हैं कि भारत के पास आत्मरक्षा का अधिकार है.
उधर, फ्रांस ने भी कहा है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में वह भारत के साथ है. चीन ने पाकिस्तान के भीतर भारत की सैन्य कार्रवाई को लेकर खेद जताया था लेकिन आतंकवाद की भी निंदा की थी. रूस ने भी कहा है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में वह भारत के साथ है.
अमेरिका ने भी खुलकर आतंकवाद की निंदा की है और दोनों देशों से वार्ता की अपील की है. दूसरी तरफ़ निकी हेली जैसी नेता खुलकर भारत का समर्थन कर रही हैं. ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने भारत की सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया है.
पहलगाम के बाद कब क्या हुआ?

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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