आरएसएस की स्थापना को 100 साल हो चुके हैं, संगठन शुरुआत से ही विवादों और सवालों के घेरे में रहा है.
एक सवाल अक्सर उठता है कि आरएसएस के 'हिंदू राष्ट्र' में मुसलमानों की जगह क्या होगी?
आरएसएस के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली में 26 अगस्त को एक आयोजन के दौरान इस सवाल पर अपना नज़रिया सामने रखा.
उन्होंने जो कुछ कहा, उसका आशय यही था कि भारत में इस्लाम की पहचान हिंदू संस्कृति से अलग नहीं है.
मोहन भागवत ने कहा, "भारतीयों का धर्म चाहे जो भी हो लेकिन वे अपने पूर्वजों की समान परंपराओं से आपस में जुड़े हुए हैं और अखंड भारत में 40 हज़ार साल भी ज़्यादा समय से डीएनए एक ही रहा है."
2021 में भी उन्होंने कहा था, "हिंदू और मुसलमान एक ही वंश के हैं, हिंदू शब्द हमारी मातृभूमि, पूर्वजों और संस्कृति की समृद्ध विरासत के समान है और प्रत्येक भारतीय हिंदू है."
संघर्ष और विरासत
जाने-माने लेखक और राजनीतिक विश्लेषक एजी नूरानी ने अपनी किताब 'द आरएसएस, ए मेनेस टू इंडिया' में लिखा है, ''अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 के विद्रोह में मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. लेकिन 19वीं सदी के अंत में यह धारणा फैलाई जाने लगी कि मुसलमान बाहर से आए और वे सभी हमलावर थे.''
स्वतंत्रता सेनानी अशोक मेहता ने लिखा है, ''1857 के विद्रोह में हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. यह किसी एक समुदाय का विद्रोह नहीं था लेकिन ऐतिहासिक और वैचारिक कारणों से मुसलमान हिंदुओं की तुलना में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ज़्यादा उग्र थे इसीलिए अंग्रेज़ों ने मुसलमानों को ज़्यादा निशाना बनाया.'' (1857: द ग्रेट रिबेलियन', 1946)
हिंदुत्व के अग्रणी विचारक सावरकर ने भी अपनी किताब 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस ऑफ 1857' में विस्तार से लिखा है किस तरह मुसलमान और हिंदू एकजुट होकर लड़ रहे थे.
सावरकर ने इसी किताब में लिखा है, ''मौलवियों ने उन्हें तालीम दी, विद्वान ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया और उनकी सफलता के लिए दिल्ली की मस्जिदों से लेकर बनारस के मंदिरों तक में दुआएं मांगी गईं."
"स्वधर्म और स्वराज के सिद्धांत को अपनाया गया. जब जीवन से भी ज्यादा प्रिय धर्म पर ख़तरनाक, विनाशकारी, धूर्त हमलों के संकेत मिल रहे थे तो धर्म की रक्षा के लिए 'दीन, दीन' की गूंज उठी."

सावरकर के लेखों और भाषणों के संग्रह का संपादन विजय चंद्र जोशी ने साल 1966 में किया था और यह जालंधर यूनिवर्सिटी से प्रकाशित हुई थी.
सावरकर ने कहा था, ''अगर कोई इस देश में हिंदू राज का सपना देखता है और उन्हें लगता है कि वे मुसलमानों को कुचलकर यहां की सबसे बड़ी ताक़त बन सकते हैं तो वे मूर्ख हैं या यूं कहें कि पागल हैं. उनका ये पागलपन हिंदूइज़्म और देश दोनों को तबाह कर देगा.''
सावरकर के ये विचार साल 1911 में उनके जेल जाने से पहले के हैं. साल 1921 में सेल्युलर जेल से बाहर निकलने से पहले ही मुसलमानों के बारे में सावरकर का एक नया रुख़ सामने आने लगा था, जिसका ज़िक्र हम आगे करेंगे.
आरएसएस की सोच में मुसलमान
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक (1940 से 1973 तक) और संघ परिवार में 'गुरुजी' कहे जाने वाले, माधव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी किताब 'वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड' में लिखा है, ''चतुर और प्राचीन देशों के अनुभव से साबित होता है कि हिंदुस्तान में विदेशी नस्लों को हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना होगा."
"हिंदू धर्म का सम्मान करना सीखना होगा, हिंदू धर्म के प्रति श्रद्धा रखनी होगी, हिंदू नस्ल और संस्कृति के गौरव को स्वीकार करना होगा. इसके अलावा अपने अलग अस्तित्व को मिटाकर ख़ुद को हिंदू नस्ल में मिलाना होगा.''
इसी किताब में गोलवलकर ने लिखा है, ''अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें इस हिंदू राष्ट्र के अधीन रहना होगा. इसमें वे किसी चीज़ पर हक़ नहीं जताएंगे, उन्हें कोई विशेषाधिकार नहीं मिलेगा, किसी भी तरह की प्राथमिकता नहीं मिलेगी और यहाँ तक कि नागरिकों के अधिकार भी नहीं मिलेंगे."
"उनके लिए इसके अलावा न कोई रास्ता है और न होना चाहिए. हम एक प्राचीन देश हैं और हमें अपने देश में रह रही विदेशी नस्लों के साथ उसी तरह पेश आना चाहिए.'' (वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, भारत पब्लिकेशन नागपुर, 1939, पेज- 47-48)
इसी किताब में (पेज-35) गोलवलकर ने लिखा है, ''अपनी नस्ल और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने यहूदियों को निकालकर दुनिया को चौंका दिया. जर्मनी में नस्ल को लेकर गर्व अपने उच्चतम स्तर पर था. जर्मनी ने यह भी दिखाया कि नस्लों और संस्कृतियों के बुनियादी अंतर को पाटना नामुमकिन है. हिन्दुस्तान के लिए ये अच्छा सबक़ है, जिसे उसे सीखना चाहिए और फ़ायदा उठाना चाहिए.''
'विभाजित निष्ठा' की दलीलबात केवल गोलवलकर की ही नहीं थी बल्कि 'हिंदुत्व' की विचारधारा के प्रवर्तक माने जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर भी जर्मनी में नाज़ीवाद का समर्थन कर रहे थे.
1 अगस्त 1938 को पुणे में एक जनसभा को संबोधित करते हुए सावरकर ने कहा था, ''जर्मनी को नाज़ीवाद और इटली को फासीवाद की राह पर चलने का पूरा अधिकार है. इन दोनों देशों में जो हालात थे, उनमें इनका होना अपरिहार्य और उनके हक़ में था.'' (सावरकर पेपर्स एम-23 पार्ट-2 मिसलेनियस कॉरसपॉन्डेंस, जनवरी- 1938, मई-1939, माइक्रो फ़िल्म सेक्शन दिल्ली)
दूसरी तरफ़, नेहरू जर्मनी में नाज़ीवाद और इटली में फासीवाद के ख़िलाफ़ बोल रहे थे.
सावरकर ने कहा था, ''हम जर्मनी, जापान, रूस और इटली को बताने वाले कौन होते हैं कि वे किस व्यवस्था को अपनाएं. क्या ऐसा हम महज अकादमिक रुझान के आधार पर कह सकते हैं? निश्चित रूप से हिटलर को पंडित नेहरू से ज़्यादा पता है कि जर्मनी के लिए क्या अच्छा है."
"नाज़ीवाद और फासीवाद के बाद जिस तरह से जर्मनी और इटली ताक़तवर बने हैं, वो यह साबित करने के लिए काफ़ी है कि ये राजनीतिक विचारधारा उनकी सेहत के लिए सबसे ज़रूरी टॉनिक थी.'' (सावरकर पेपर्स, मई- 1937 से मई-1938)
आरएसएस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कई किताबें लिख चुके प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम कहते हैं, "सावरकर जर्मनी में नाज़ीवाद का समर्थन करके भारत में अल्पसंख्यकों को लेकर अपनी सोच ही ज़ाहिर कर रहे थे."
14 अक्तूबर 1938 को सावरकर ने मालेगाँव में एक भाषण में कहा था, ''एक राष्ट्र वहां रह रहे बहुसंख्यकों से बनता है. जर्मनी में यहूदी क्या कर रहे थे? अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें जर्मनी से निकाल दिया गया.'' (महाराष्ट्र स्टेट अर्काइव्स मुंबई)
सावरकर ने 'हिन्दुत्व: हू इज अ हिंदू' में लिखा है कि जिन लोगों को "जबरन ग़ैर-हिंदू धर्मों में धर्मांतरित किया गया, उनकी पितृभूमि भी यही है और संस्कृति का बड़ा हिस्सा भी एक जैसा ही है लेकिन फिर भी उन्हें हिंदू नहीं माना जा सकता."
"हालांकि हिंदुओं की तरह हिन्दुस्थान उनकी भी पितृभूमि है, लेकिन पुण्यभूमि नहीं है. उनकी पुण्यभूमि सुदूर अरब है. उनकी मान्यताएं, उनके धर्मगुरु, विचार और नायक इस मिट्टी की उपज नहीं हैं. ऐसे में उनके नाम और दृष्टिकोण मूल रूप से विदेशी हैं. उनका प्यार बँटा हुआ है.''
ख़िलाफ़त आंदोलन का दोराहा
सन 1920 से कांग्रेस की कमान गांधी के पास आई. तब ऑटोमन साम्राज्य का अंत हुआ और ख़िलाफ़त की व्यवस्था भी ख़त्म हुई. इसे लेकर दुनिया भर के मुसलमानों में रोष था और भारत के मुसलमान ख़िलाफ़त आंदोलन कर रहे थे.
इस दौर के बारे में 'गोलवकर द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' के लेखक धीरेंद्र कुमार झा कहते हैं, "उसी समय हिंदुओं को गणेश पूजा जैसे धार्मिक आयोजनों के ज़रिए लामबंद किया जा रहा था यानी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ गोलबंदी का ज़रिया धर्म बन रहा था."
"गांधी के नेतृत्व में भारत के राष्ट्रवादी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों को साथ लाना चाहते थे इसीलिए ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन कर रहे थे."
ये तब की बात है जब आरएसएस अस्तित्व में नहीं आया था और केशव बलिराम हेडगेवार कांग्रेस में ही थे, हेडगेवार ख़िलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के ख़िलाफ़ थे.
आरएसएस बनाने के एक साल पहले साल 1924 में हेडगेवार वर्धा स्थित आश्रम में गांधी से मिलने गए थे.
इस मुलाक़ात में उन्होंने कांग्रेस की नीतियों पर चर्चा की थी. इस मुलाक़ात का विवरण हेडगेवार के क़रीबी दोस्त रहे अप्पाजी जोशी ने 'तरुण भारत' में पाँच मई 1970 को लिखा था.
ख़िलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के गांधी के फ़ैसले पर हेडगेवार ने असहमति जताई थी और उन्होंने कहा था कि इससे मुसलमानों में अलगाववादी भावना भर रही है.
धीरेंद्र झा कहते हैं, ''पहला जन-आंदोलन गांधी ने हिंदू और मुसलमानों की एकता पर खड़ा कर दिया. अंग्रेज़ परेशान थे कि इसे कैसे तोड़ा जाए."
"सन 1920 के माफ़ीनामे में सावरकर ने अंग्रेज़ों से कहा, मुसलमान हम दोनों के साझे दुश्मन हैं. उसके बाद वह अंडमान से मेनलैंड की जेल में आए. जेल में अपनी किताब 'हिन्दुत्व' लिखी जिसके बाद वह जेल से बाहर आए."
पुण्यभूमि से वफ़ादारी
सावरकर ने ही 'पितृभूमि' और 'पुण्यभूमि' की अवधारणा दी और कहा कि मुसलमानों की निष्ठा बंटी हुई है क्योंकि उनकी 'पुण्यभूमि' कहीं और है.
धीरेंद्र झा कहते हैं, "यह थ्योरी इसलिए दी गई ताकि हिंदुओं को समझाया जाए कि मुसलमान हमारे अपने नहीं हैं और पहले उनके ख़िलाफ़ लड़ने की ज़रूरत है.''
धीरेंद्र झा कहते हैं, ''विभाजित निष्ठाएं क्या होती हैं? अमेरिका, यूरोप और बाक़ी दूसरे देशों में जो हिंदू हैं, क्या उनकी निष्ठाएं बँटी हुई हैं? क्या ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रति वफ़ादार नहीं थे?''
दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर और आरएसएस से जुड़े प्रोफ़ेसर संगीत रागी इस सवाल पर कहते हैं, ''हिंदुओं और मुसलमानों में फ़र्क़ है. क्या किसी देश में हिंदुओं ने धार्मिक कट्टरता दिखाई? पैन हिंदूइजम की बात की? इसका जवाब ना है."
"लेकिन भारत के मुसलमान क्या पैन इस्लाम की बात नहीं करते हैं? तुर्की के मुद्दे पर भारत में ख़िलाफ़त आंदोलन की क्या ज़रूरत थी?''
- 'गांधी हत्याकांड में RSS की भूमिका', ऐतिहासिक दस्तावेज़ क्या कहते हैं

आज़ादी के बाद कलकत्ता में हुए सांप्रदायिक दंगे को शांत कराने के लिए महात्मा गांधी ने सन 1947 में 2 सितंबर से तीन दिनों के लिए उपवास रखा था. इसके बाद गांधी 9 सितंबर को दिल्ली लौट आए थे.
सरदार पटेल की बेटी मणिबेन की डायरी के मुताबिक़, 12 सितंबर 1947 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में गोलवलकर की मुलाक़ात महात्मा गांधी से हुई. (पीएन चोपड़ा एंड प्रभा चोपड़ा, इनसाइड स्टोरी ऑफ सरदार पटेल: द डायरी ऑफ मणिबेन पटेल, विजन बुक्स नई दिल्ली-2001, पेज नंबर-167)
इस मुलाक़ात में गांधी ने गोलवलकर से कहा- 'आपके संगठन का हाथ भी ख़ून से सना है.' गोलवलकर ने इस आरोप को ख़ारिज करते हुए कहा था कि आरएसएस किसी का दुश्मन नहीं है. उन्होंने कहा कि आरएसएस मुसलमानों की हत्या का समर्थन नहीं करता है. (द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, प्रकाशन विभाग 1983, पेज-177)
महात्मा गांधी के निजी सचिव प्यारेलाल ने अपनी किताब 'महात्मा गांधी: द लास्ट फेज़' (पेज-439) में लिखा है, ''गांधी गोलवलकर के जवाब से संतुष्ट नहीं थे. गांधी ने गोलवलकर से कहा कि वह सार्वजनिक रूप से आरोपों का खंडन करें और मुसलमानों की हत्या की निंदा करें. लेकिन गोलवलकर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और आग्रह किया कि गांधी ख़ुद उनकी तरफ़ से ऐसा कर दें.''
प्यारेलाल ने लिखा है कि गोलवलकर से मुलाक़ात के चार दिन बाद सितंबर 1947 में दिल्ली के वाल्मीकि मंदिर में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए गांधी ने कहा था, ''अगर हिंदुओं को लगता है कि भारत में ग़ैर-हिंदुओं को बराबरी और सम्मानजनक तरीक़े से रहने का अधिकार नहीं है."
"अगर मुसलमानों को भारत में रहना है तो दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा या मुसलमानों को लगता है कि पाकिस्तान में हिंदुओं को उनके मातहत रहना होगा, ऐसा हुआ तो यह हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों पर ग्रहण की तरह होगा.''
गोलवलकर और गांधी की मुलाक़ात के क़रीब डेढ़ महीने बाद नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था.
इस पत्र में उन्होंने कहा था, ''मुझे पता है कि देश में कुछ हद तक ऐसी भावना है कि केंद्र सरकार कमज़ोर है और मुसलमानों का तुष्टीकरण कर रही है. ये पूरी तरह से बकवास है. कमज़ोर पड़ने या तुष्टीकरण का सवाल ही पैदा नहीं होता है.''
''भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक इतनी बड़ी तादाद में हैं कि वे चाहकर भी कहीं और नहीं जा सकते हैं. उन्हें भारत में ही रहना होगा. इसे लेकर कोई बहस नहीं हो सकती है."
"पाकिस्तान से चाहे जितना उकसावा हो और वहाँ ग़ैर-मुसलमानों के साथ चाहे जितना उत्पीड़न हो, हमें अपने अल्पसंख्यकों के साथ सभ्य तरीक़े से पेश आना होगा.'' (जी पार्थसारथी-संपादित, जवाहरलाल नेहरू लेटर्स टू चीफ़ मिनिस्टर्स- 1947-1964)
दिल्ली में 1947 में 29 सितंबर को नेहरू ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था, ''भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग मुस्लिम लीग की जीत होगी, जो पाकिस्तान बनाने से भी बड़ी होगी. हमें उन सिद्धांतों को स्वीकार नहीं करना चाहिए, जिनके ख़िलाफ़ हमने अतीत में लड़ाई लड़ी है.'' (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ नेहरू, सेकंड सिरीज़, वॉल्युम-4, 1986 पेज नंबर- 105)
1947 में 2 अक्तूबर को नेहरू ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ''हिंदू राष्ट्र की मांग न केवल मूर्खता और मध्यकालीन सोच ज़ाहिर करती है बल्कि अपनी प्रकृति में भी फासीवादी है. इन विचारधाराओं को बढ़ाने वालों का वही अंजाम होगा, जो हिटलर और मुसोलिनी का हुआ.'' (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ नेहरू, सेकंड सिरीज़, वॉल्युम-4, 1986, पेज नंबर- 118)
हिंदू राष्ट्र के विचार का विरोध केवल गांधी और नेहरू ही नहीं कर रहे थे, बल्कि भीमराव आंबेडकर भी खुलकर कर रहे थे जो बहुत सारे मुद्दों पर उनसे सहमत नहीं थे.
बीआर आंबेडकर ने अपनी किताब 'पाकिस्तान और द पार्टिशन ऑफ इंडिया' में लिखा है, ''अगर हिंदू राष्ट्र हक़ीक़त बन जाता है तो ये बेशक इस देश के लिए सबसे बड़ी त्रासदी होगी. किसी भी क़ीमत पर हिंदू राष्ट्र को बनने से रोकना होगा.'' (1946, पेज संख्या- 354-355)
आंबेडकर ने 24 मार्च 1947 को राइट्स ऑफ स्टेट एंड माइनॉरिटी पर एक रिपोर्ट तैयार की थी.
उन्होंने इस रिपोर्ट में लिखा था, ''भारतीय अल्पसंख्यकों का यह दुर्भाग्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद ने एक नया सिद्धांत गढ़ लिया है. बहुसंख्यकों को लगता है कि उन्हें अल्पसंख्यकों पर राज करने करने का दैवीय अधिकार है. अल्पसंख्यक अगर सत्ता में हिस्सेदारी माँगते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक करार दिया जाएगा जबकि बहुसंख्यकों के सत्ता पर एकाधिकार को राष्ट्रवाद कहा जाएगा.''
गांधी की हत्यानाथूराम गोडसे ने 1948 में 30 जनवरी (शुक्रवार) की शाम महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी.
नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने कहा था, ''हमारा मक़सद सरकार पर नियंत्रण करना नहीं था, हम तो बस राष्ट्र को ऐसे व्यक्ति से मुक्त करने का प्रयास कर रहे थे, जिसने इसे बहुत नुक़सान पहुँचाया था. उन्होंने लगातार हिंदू राष्ट्र का अपमान किया और अपने अहिंसा के सिद्धांत से उसे कमज़ोर किया था."
"अपने अनेक उपवासों में, उन्होंने हमेशा मुस्लिम-समर्थक शर्तें रखीं, उन्होंने मुस्लिम कट्टरपंथियों के बारे में कभी कुछ नहीं कहा. हम भारतीयों को यह दिखाना चाहते थे कि ऐसे भारतीय भी हैं, जो अपमान सहन नहीं करेंगे. हिंदुओं में अब भी कुछ वैसे लोग बचे हैं." ('गांधी वध और मैं', गोपाल गोडसे, पेज नंबर-20)
बीजेपी के दिग्गज नेता और पूर्व गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब 'मेरा देश मेरा जीवन' (पेज संख्या-58) में स्वीकार किया है कि गोडसे एक समय आरएसएस के स्वयंसेवक रहे थे.
आडवाणी ने लिखा है, ''जिस व्यक्ति ने यह पापपूर्ण अपराध किया, वह हिंदू महासभा का सदस्य था. वह कभी संघ का स्वयंसेवक रहा था लेकिन संघ के साथ गहरे मतभेद होने के कारण 15 साल पहले संघ छोड़ चुका था.''
गोलवलकर से अलग देवरस की राह
जून 1973 में गोलवलकर का निधन हुआ और आरएसएस की कमान मधुकर दत्तात्रेय देवरस (बालासाहेब देवरस) को मिली. देवरस जब आरएसएस के सरसंघचालक बने तो उनकी उम्र 58 थी. गोलवलकर से देवरस नौ साल छोटे थे.
आरएसएस की कमान गोलवलकर के पास सबसे लंबे समय तक यानी क़रीब 33 सालों (1940-1973) तक रही.
इन 33 सालों में गोलवलकर ने आरएसएस को वैचारिक रूप से गढ़ा. गोलवलकर के बाद देवरस सबसे लंबे समय तक यानी क़रीब 21 सालों (1973-1994) आरएसएस के सरसंघचालक रहे.
इन्हीं 21 सालों में भारत में आपातकाल लगा, लाइसेंस राज ख़त्म हुआ, मंडल कमीशन लागू हुआ और अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ दी गई.
देवरस इसी अहम दौर में आरएसएस का नेतृत्व कर रहे थे. देरवस के सरसंघचालक रहते हुए ही उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी और पिछड़ी जाति के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने.
देवरस और गोलवलकर में काफ़ी मतभेद थे और ये मतभेद समय-समय पर खुलकर सार्वजनिक होते रहते थे. संजीव केलकर ने 'लॉस्ट इयर्स ऑफ आरएसएस' में लिखा है कि ये वही दौर था, जिसमें आरएसएस बहुत सतर्क था.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने अपनी किताब 'द आरएसएस: आइकंस ऑफ द इंडियन राइट' में लिखा है, ''देवरस को लगता था कि हेडगेवार के बाद उन्हें सरसंघचालक बनना था लेकिन गोलवलकर ने इसे हड़प लिया."
"गोलवलकर 1930 के दशक में बाद के वर्षों में हेडगेवार के पसंदीदा बने जबकि देवरस पहले से ही आरएसएस के अग्रणी नेतृत्व में शामिल थे. देवरस को हेडगेवार के उत्तराधिकारी के रूप में देखा भी जाता था. गोलवलकर के सरसंघचालक बनने पर देवरस ने खुली नाराज़गी जताई थी."
"दूसरी तरफ़, गोलवलकर अक्सर देवरस की तारीफ़ करते रहते थे. यहाँ तक कि गोलवलकर देवरस को 'हेडगेवार की छाया' बताते थे, लेकिन इससे देवरस को बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा. गोलवलकर ने सरसंघचालक बनने के बाद पहली बैठक बुलाई और देवरस ने इस बैठक से दूर रहकर अपना विरोध जताया.''
देसराज गोयल ने अपनी किताब 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' में लिखा है, ''देवरस ने कहा था कि वह नागपुर में मेस की निगरानी करने गए थे ताकि स्वयंसेवकों को वक़्त पर खाना मिल सके. गोलवलकर ने इस पर कहा था- असली सरसंघचालक मेस में हैं. मैं तो नाम का सरसंघचालक हूँ. पहले उन्हें बुलाइए.''

नीलांजन मुखोपाध्याय ने लिखा है, ''हेडगेवार और गोलवलकर सावरकर के हिंदुत्व का समर्थन करते थे लेकिन दोनों ने इसे अलग-अलग तरीक़े से अपनाया. सावरकर हिंदुओं के सैन्यीकरण के पक्ष में थे. हेडगेवार ने संगठन को मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया जबकि गोलवलकर हिंदुत्व की विचारधारा को आध्यात्मिक रूप से मज़बूत करना चाहते थे. इनसे अलग, देवरस आरएसएस को राजनीतिक ताक़त बनाना चाहते थे."
देवरस ने भारतीय मज़दूर संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे सहायक संगठनों को मज़बूत किया. देवरस का मानना था कि इससे राजनीतिक गतिविधियों की ज़मीन तैयार होगी.
नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "देवरस को लगता था कि संघ को दलितों तक पहुँचना चाहिए. देवरस को लगता था कि अगर दलितों को मुख्यधारा में नहीं लाया गया तो वे दूसरे धर्म को अपना लेंगे. मीनाक्षीपुरम में दलितों ने 1981 में बड़ी संख्या में इस्लाम अपना लिया था. इसके बाद से देवरस और ज़्यादा सक्रिय हो गए थे."
नीलांजन मानते हैं कि नवंबर 1989 में अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर का शिलान्यास एक दलित से कराया था जो बहुत ही प्रतीकात्मक संदेश था. इसके बाद जब 1991 में बीजेपी को उत्तर प्रदेश चुनाव में जीत मिली तो पिछड़ी जाति के कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया. उमा भारती, विनय कटियार और कई अन्य चेहरों को आगे किया गया जो सवर्ण नहीं थे.
वे कहते हैं, "आज बीजेपी दलितों और पिछड़ी जातियों पर फोकस करके चल रही है लेकिन इसका आग़ाज़ देवरस ने किया था."

देवरस ने 1994 में रज्जू भैया (राजेंद्र सिंह) को आरएसएस का सरसंघचालक बनाया और यह फ़ैसला भी एक परंपरा को तोड़ने जैसा ही था. अब तक सारे सरसंघचालक ब्राह्मण बने थे लेकिन रज्जू भैया उत्तर प्रदेश के ठाकुर थे.
नीलांजन मुखोपाध्याय इसे भी देवरस का रणनीतिक फ़ैसला मानते हैं. मुखोपाध्याय कहते हैं कि देवरस अगर रज्जू भैया को सरसंघचालक नहीं बनाते तब भी किसी ग़ैर-ब्राह्मण को ही बनाते.
संघ की परंपरा के मुताबिक़, मौजूदा सरसंघचालक ही अपने उत्तराधिकारी के नाम की घोषणा करता है. देवरस ने ऐसे दौर में रज्जू भैया को चुना जब देश में जातीय पहचान की राजनीति ज़ोर पकड़ रही थी.
हालांकि रज्जू भैया का सरसंघचालक का कार्यकाल महज छह सालों का रहा. यह अब तक के सारे सरसंघचालकों में सबसे छोटा कार्यकाल था.
देवरस मुसलमानों के ख़िलाफ़ आक्रामकता से परहेज करते थे. इसी से जुड़ा एक वाक़या नीलांजन मुखोपाध्याय ने अपनी किताब में साझा किया है.
मुखोपाध्याय ने लिखा है, ''रज्जू भैया चाहते थे कि सरसंघचालक यानी देवरस विजयादशमी (1992) के संबोधन में अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे पर खरी-खरी बात कहें. रज्जू भैया ने इसके लिए नागपुर जाने का फ़ैसला किया ताकि देवरस के भाषण में अयोध्या मुद्दे को आक्रामक रूप से शामिल कराया जा सके. रज्जू भैया ने देवरस के निजी सहायक श्रीकांत जोशी से विजयादशमी के भाषण की कॉपी मांगी. भाषण सामान्य तौर पर एमजी वैद्य लिखते थे. रज्जू भैया की आशंका सही साबित हुई क्योंकि भाषण में राम मंदिर के मुद्दे को आक्रामक तरीक़े से पेश नहीं किया गया था. एमजी वैद्य ने रज्जू भैया की सलाह पर भाषण को संशोधित किया और राम मंदिर के मुद्दे को आक्रामक रूप में जोड़ा.''
मुखोपाध्याय ने लिखा है, ''अगली सुबह देवरस ने वैद्य को बुलाया और पूछा- आपको लगता है कि सरसंघचालक अपने भाषण में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करता है? एमजी वैद्य ने रज्जू भैया के सुझाव का ज़िक्र नहीं किया और देवरस ने अपना पुराना भाषण ही पढ़ा.
मुखोपाध्याय ने बीबीसी हिंदी से कहा, ''लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं था कि देवरस मस्जिद तोड़ने के पक्ष में नहीं थे और राम मंदिर नहीं चाहते थे.''
रज्जू भैया के बाद केएस सुदर्शन आरएसएस के सरसंघचालक बने, उनका कार्यकाल 2000 से 2009 तक रहा. रायुपर में जन्मे सुदर्शन और अटल बिहारी के संबंधों में कई बार खिंचाव दिखता था. सुदर्शन का मानना था कि वाजपेयी ने सरकार के कामकाज में अपने दत्तक पुत्री के पति के हस्तक्षेप को नहीं रोका.
दरअसल, आरएसएस में कोई मुसलमान शामिल नहीं हो सकता है और इसकी अक्सर आलोचना होती थी, सुदर्शन के कार्यकाल में ही 2002 में 'मुस्लिम राष्ट्रीय मंच' बना था.
'मुस्लिम राष्ट्रीय मंच' को 'राष्ट्रवादी मुसलमानों का संगठन' बताया गया और कहा गया कि इसके सदस्य 'राष्ट्र पहले, मज़हब बाद में' के सिद्धांत को मानते हैं.
नीलांजन मुखोपाध्याय बताते हैं कि मुसलमानों के बीच पैठ बनाने के हिमायती सुदर्शन के गुरु रहे बालासाहेब देवरस भी थे.
मुसलमानों के बीच 'वंदे मातरम्' गाने की मुहिम चलाने वाला 'मुस्लिम राष्ट्रीय मंच' विवादों में रहा, उसके तार अजमेर और मालेगांव जैसे बम धमाकों से जोड़े गए थे लेकिन 2016 में एनआईए ने सभी आरोपों को हटाने का फ़ैसला किया.
2009 में आरएसएस की कमान मोहन भागवत के पास आई, जो पिछले 16 सालों से सरसंघचालक हैं, गोलवलकर और देवरस के बाद भागवत का कार्यकाल अब तक का तीसरा सबसे लंबा कार्यकाल है.
2014 में बीजेपी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आई और तब से देश की सबसे बड़ी धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व संसद में लगातार कम होता गया है.
इस समय लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में अपने न्यूनतम स्तर पर है. देश में तकरीबन 15 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं लेकिन संसद में कुल 24 मुसलमान ही पहुँच सके यानी कुल सीटों का 4.4 प्रतिशत.
2024 के आम चुनाव में बीजेपी ने केवल एक मुसलमान को संसद के लिए उम्मीदवार बनाया, केरल में बड़ी मुस्लिम आबादी वाले मल्लापुरम सीट से अब्दुल सलाम को बीजेपी ने उम्मीदवार बनाया था, उनकी हार पहले से तय मानी जा रही थी, और वही हुआ भी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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