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पुस्तक समीक्षा : 'हम भारत के लोग' बात करती है लोकतांत्रिक अधिकारों सामाजिक न्याय की दिशा पर

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दिनेश श्रीनेत‘हम भारत के लोग : लोकतंत्र की बुनियाद और अधिकारों की स्थापना’ समृद्ध भारत फाउंडेशन की तरफ से प्रकाशित 14 पुस्तकों की शृंखला में प्रकाशित पुस्तक का हिंदी अनुवाद है। भारत के 150 प्रमुख विचारकों के योगदान से तैयार की गई यह शृंखला मौजूदा भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मूल्यों पर पुनर्विचार करती है। प्रस्तुत कियाब भारतीय लोकतंत्र के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पक्षों की गहन पड़ताल करती है। निखिल डे, अरुणा रॉय और रक्षिता स्वामी द्वारा संपादित यह संकलन ‘रीथिकिंग इंडिया’ श्रृंखला का चौथा खंड है, जिसमें भारत के विविध क्षेत्रों से जुड़े कार्यकर्ताओं, अर्थशास्त्रियों, शिक्षकों और अधिवक्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। यह किताब अधिकार-आधारित विकास, सामाजिक न्याय, संस्थागत पारदर्शिता और जन भागीदारी के विdचार को रेखांकित करती है। साथ ही उसे लागू करने की व्यावहारिक चुनौतियों पर भी विमर्श किया गया है।‘हम भारत के लोग’ में जोर इस बात पर है कि अधिकार सिर्फ संविधान में दर्ज शब्द नहीं, बल्कि नागरिकों के जीवन में अर्थ भरने वाला होना चाहिए। आर्थिक अधिकारों को मूर्त रूप देने के लिए संरचनात्मक परिवर्तन की आवश्यकता है। वहीं सामाजिक जवाबदेही और पारदर्शिता पर आधारित निबंध यह दर्शाते हैं कि नागरिकों और सरकार के बीच विश्वास का सेतु कैसे मजबूत किया जा सकता है। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार जैसे बुनियादी अधिकारों पर केंद्रित निबंध यह दर्शाते हैं कि किस तरह निजीकरण और राज्य की निष्क्रियता समाज के वंचित वर्गों को और अधिक हाशिए पर धकेलती है। मनरेगा जैसी योजनाओं के संदर्भ में यह स्पष्ट होता है कि सरकारी पहल कितनी भी सार्थक क्यों न हो, यदि उसमें पारदर्शिता, संसाधन और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी हो, तो उसका प्रभाव सीमित रह जाता है।प्रशांत भूषण जैसे विधिवेत्ता स्वतंत्र संस्थानों की गिरती स्थिति पर चिंता जताते हैं और बताते हैं कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका और निष्पक्ष जांच एजेंसियाँ कितनी आवश्यक हैं। केरल का विकेन्द्रीकरण मॉडल यह दिखाता है कि जब स्थानीय निकायों को सशक्त किया जाता है, तो सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। यह पुस्तक महज एक बौद्धिक विमर्श नहीं है, बल्कि मौजूदा राजनीतिक सामाजिक भारत का एक सक्रिय दस्तावेज़ है जो हर नागरिक को यह सोचने को प्रेरित करता है कि वे लोकतंत्र में सिर्फ दर्शक नहीं, सक्रिय भागीदार हैं। लोकतंत्र को गहरा करने के लिए अधिकारों की लड़ाई केवल कागजों पर नहीं, ज़मीन पर भी लड़ी जानी चाहिए।हिंदी संस्करण में कुल 8 अध्याय हैं, जिनमें अलग-अलग विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं द्वारा भारत में अधिकार-आधारित ढांचे, जनभागीदारी, संस्थागत पारदर्शिता और सामाजिक न्याय पर गहन विचार किया गया है। पुस्तक की शुरुआती प्रस्तावना में बताया गया है कि अधिकार सिर्फ क़ानूनी शब्द नहीं, बल्कि नागरिकों को गरिमा, सुरक्षा और समानता दिलाने वाले ज़मीनी औज़ार हैं। पहला अध्याय प्रभात पटनायक और जयंती घोष द्वारा लिखा गया है, जो यह विश्लेषण करता है कि कैसे आर्थिक अधिकारों की स्थापना भारत जैसे देश में पूंजीवाद से टकराती है, और इसके लिए एक व्यापक जनआंदोलन की आवश्यकता है। अमिताभ बेहर और सावी सौम्य द्वारा लिखा गया दूसरा अध्याय असमानता और अधिकारों की राजनीति पर प्रकाश डालता है। यह अध्याय दिखाता है कि भारत में गरीबी घट सकती है, परंतु दूसरी तरफ असमानता बढ़ती जा रही है, और यह लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चेतावनी है।तीसरे और चौथे अध्याय में सामाजिक जवाबदेही और सार्वजनिक सेवाओं की वर्तमान स्थिति पर चर्चा की गई है। पारस बंजारा, रक्षिता स्वामी और शंकर सिंह सामाजिक लोकतंत्र को जवाबदेही के ढांचे में रूपांतरित करने की बात करते हैं। वहीं अंबरिश राय और सृजिता मजूमदार शिक्षा के अधिकार की वर्तमान स्थिति पर गंभीर सवाल उठाते हैं। दीपा सिन्हा का लेख सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण सेवाओं पर केंद्रित है, जो विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। राजेन्द्रन नारायणन और एनी राजा द्वारा लिखा गया अध्याय मनरेगा योजना की समीक्षा करता है। यह अध्याय यह उजागर करता है कि ग्रामीण रोजगार योजना होने के बावजूद, मनरेगा को सही ढंग से लागू करने के लिए राज्यों और केंद्र सरकारों के बीच समन्वय की कमी एक बड़ी बाधा बनी हुई है।प्रशांत भूषण और अंजलि भारद्वाज का लेख लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर सवाल उठाता है, जैसे न्यायपालिका, सीबीआई, सूचना आयोग, और लोकपाल। वे बताते हैं कि इन संस्थाओं का राजनीतिक दबाव में आना लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा है। अंतिम अध्याय टी.एम. थॉमस इसाक और एस.एम. विजयनंद द्वारा लिखा गया है, जो केरल के विकेंद्रीकरण मॉडल को रेखांकित करता है। यह मॉडल दिखाता है कि जब स्थानीय निकायों को अधिकार और संसाधन दिए जाते हैं, तो न केवल योजनाएं ज़मीनी स्तर पर लागू होती हैं, बल्कि सामाजिक समावेशिता भी बढ़ती है।किताब भारतीय लोकतंत्र में अधिकारों की स्थापना और सामाजिक न्याय के लिए चल रही लड़ाइयों की एक ईमानदार झलक प्रस्तुत करती है। भारतीय संविधान की आत्मा तभी जीवित रह सकती है जब उसे ज़मीन पर उतारा जाए। कुल मिलाकर यह किताब हर जागरूक नागरिक और नीति-निर्माता के लिए अनिवार्य है।
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