छठ शुरू हो चुका है, लेकिन बिहार के लोगों की घर पहुंचने की जद्दोजहद जारी है। रेलवे के मुताबिक, इस बार 12 हजार से ज्यादा स्पेशल ट्रेनें चलाई गई हैं और पिछले साल की तुलना में इस बार विशेष रेलगाड़ियां 56% ज्यादा फेरे लगाएंगी। हालांकि बिहार जाने वाली ट्रेनों से आ रही तस्वीरें बता रही हैं कि इतने इंतजाम भी पर्याप्त साबित नहीं हो रहे।
अमानवीय यात्रा: बिहार के लिए किसी भी ट्रेन में पैर रखने तक की जगह नहीं है। रिजर्वेशन बेमायने हो गए हैं और रातभर खड़े रहकर या उकड़ू बैठकर यात्रा करना आम। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इस मुद्दे को उठाया, तो जवाब में रेलवे की तरफ से कहा गया कि त्योहारों के समय भीड़ स्वाभाविक है और विभाग यात्रियों की सुविधा के लिए लगातार प्रयासरत है।
समस्या के पहलू: लेकिन, यह स्थिति केवल इस बार की नहीं है। हर साल त्योहारों पर, खासकर छठ पर ट्रेनों में जगह मिलना जंग जीतने की तरह हो जाता है। स्पेशल ट्रेनें हर साल चलाई जाती हैं, पर उसी अनुपात में लगता है कि भीड़ भी बढ़ जाती है। इस समस्या के दो पहलू हैं - रेलवे इंफ्रा और पलायन।
जरूरत ज्यादा: पिछले 10 साल में करीब 34 हजार नई रेल लाइन बिछाई गई है। इस दौरान वंदेभारत और अमृत भारत एक्सप्रेस जैसी नई ट्रेनें उतारी गईं। वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए रेलवे को अब तक का सबसे बड़ा 2.65 लाख करोड़ रुपये का बजट मिला है। इसमें बुनियादी ढांचे को मजबूत करने और यात्री सुविधाओं में सुधार पर फोकस है। विशेषकर नई रेलवे लाइन के लिए 32.23 हजार करोड़ रुपये अलॉट किए गए हैं। यह तो हुई आंकड़ों की बात। सच यह है कि इसके बावजूद बिहार जाने वाले यात्रियों के हिसाब से ट्रेनों की कमी है।
मजबूरी का विस्थापन: इस समस्या का दूसरा पहलू जुड़ा है पलायन से। मन से किए गए विस्थापन और मजबूरी के विस्थापन में गहरा अंतर है। बिहार की एक बड़ी आबादी रोजी-रोटी के संकट की वजह से घर छोड़ती है। इस बार विधानसभा चुनाव प्रचार में प्रशांत किशोर ने यह मुद्दा उठाया भी, लेकिन इसे जितनी तवज्जो मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली। चुनाव की वजह से इस बार बिहार की ट्रेनों में भीड़ की तरफ नेताओं का ध्यान गया और इस पर चर्चा हुई। लेकिन, यह समस्या केवल चुनावी नहीं है। दूरगामी उपाय तो किए ही जाने चाहिए, ऐसे फौरी कदम भी उठाए जाएं जिससे त्योहार संघर्ष का मौका बनकर न रह जाए।
अमानवीय यात्रा: बिहार के लिए किसी भी ट्रेन में पैर रखने तक की जगह नहीं है। रिजर्वेशन बेमायने हो गए हैं और रातभर खड़े रहकर या उकड़ू बैठकर यात्रा करना आम। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इस मुद्दे को उठाया, तो जवाब में रेलवे की तरफ से कहा गया कि त्योहारों के समय भीड़ स्वाभाविक है और विभाग यात्रियों की सुविधा के लिए लगातार प्रयासरत है।
समस्या के पहलू: लेकिन, यह स्थिति केवल इस बार की नहीं है। हर साल त्योहारों पर, खासकर छठ पर ट्रेनों में जगह मिलना जंग जीतने की तरह हो जाता है। स्पेशल ट्रेनें हर साल चलाई जाती हैं, पर उसी अनुपात में लगता है कि भीड़ भी बढ़ जाती है। इस समस्या के दो पहलू हैं - रेलवे इंफ्रा और पलायन।
जरूरत ज्यादा: पिछले 10 साल में करीब 34 हजार नई रेल लाइन बिछाई गई है। इस दौरान वंदेभारत और अमृत भारत एक्सप्रेस जैसी नई ट्रेनें उतारी गईं। वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए रेलवे को अब तक का सबसे बड़ा 2.65 लाख करोड़ रुपये का बजट मिला है। इसमें बुनियादी ढांचे को मजबूत करने और यात्री सुविधाओं में सुधार पर फोकस है। विशेषकर नई रेलवे लाइन के लिए 32.23 हजार करोड़ रुपये अलॉट किए गए हैं। यह तो हुई आंकड़ों की बात। सच यह है कि इसके बावजूद बिहार जाने वाले यात्रियों के हिसाब से ट्रेनों की कमी है।
मजबूरी का विस्थापन: इस समस्या का दूसरा पहलू जुड़ा है पलायन से। मन से किए गए विस्थापन और मजबूरी के विस्थापन में गहरा अंतर है। बिहार की एक बड़ी आबादी रोजी-रोटी के संकट की वजह से घर छोड़ती है। इस बार विधानसभा चुनाव प्रचार में प्रशांत किशोर ने यह मुद्दा उठाया भी, लेकिन इसे जितनी तवज्जो मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली। चुनाव की वजह से इस बार बिहार की ट्रेनों में भीड़ की तरफ नेताओं का ध्यान गया और इस पर चर्चा हुई। लेकिन, यह समस्या केवल चुनावी नहीं है। दूरगामी उपाय तो किए ही जाने चाहिए, ऐसे फौरी कदम भी उठाए जाएं जिससे त्योहार संघर्ष का मौका बनकर न रह जाए।
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