होनी बलवान होती है, राजा परीक्षित से होनी ने ऋषि का अपमान तथा होनी ने ही उसके पुत्र से राजा को श्राप दिलाया। श्रृंगी ऋषि के श्राप के बाद राजा परीक्षित गंगा के तट पर जाने से पहले अपना राज- पाट अपने पुत्र जनमेजय को देकर गंगा के तट पर जाकर भागवत कथा सुनकर सातवें दिन तक्षक नाग के काटे जाने पर स्वर्ग को चले गए। राजा परीक्षित के परलोक सिधारने के बाद जब जनमेजय युवा हो गया, तो मंत्रियों के सहयोग से राज्य करने लगा। एक बार महामुनि वेदव्यास के मुख से महाभारत के युद्ध का वर्णन आया तो राजा जनमेजय ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि, ‘मुनिवर! एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि जिस काल में कौरवों और पाण्डवों का युद्ध हुआ, उस काल में योगेश्वर श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष विद्यमान थे, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि महान एवं आदरणीय पूज्य व्यक्तियों के उपस्थित रहते हुए भी भाइयों के मध्य संधि क्यों न कराई जा सकी। उनको समझाया न जा सका तथा भाइयों के अति साधारण कलह के आधार पर महाभारत जैसा महायुद्ध हुआ, जिसने संसार के प्रसिद्ध नामी योद्धाओं को मिटा दिया।’
जनमेजय का तर्क सुनकर महामुनि वेदव्यास जी हंसने लगे और बोले, ‘पुत्र! यह सब होनी का खेल है, जो हो रहा है वह होकर रहता है, इसमें भला कोई क्या कर सकता है।’ जनमेजय ने प्रार्थना करते हुए कहा, ‘प्रभु अपराध क्षमा करें, जो भी भूतकाल में हुआ, सब होनी ने ही करवाया, मैं इस बात को नहीं मानता। आपने कहा, होनी प्रबल है, परन्तु यदि सब महापुरुष प्रयास करते तो घोर संघर्ष को निश्चित ही रोका जा सकता था।’ तब महामुनि ने कहा, ‘राजन! तुम क्या समझते हो, कि उस समय हम लोगों ने कुछ भी न किया होगा। इस हेतु बहुत सारे प्रयत्न किए गए, परन्तु होनी के आगे कुछ भी बस न चला। होनी के आगे हम सब भी विवश हो गए, हमारा कोई भी प्रयास सफल न हो पाया और महाभारत का युद्ध होकर ही रहा।’
होनी भी तो भाग्य अथवा प्रारब्ध का दूसरा नाम है, होनी उसे कहते हैं, जिसे किसी भी प्रकार नहीं टाला जा सकता। होनी अटल है और वह होकर रहती है। होनी ने बड़े-बड़े लोगों से ऐसे-ऐसे काम करवा डाले, जिन्हें कोई सपने में नहीं सोच सकता था। कर्म ही तो प्रारब्ध बनते हैं, होनी भी तो मनुष्य के अपने कर्मफलों का परिणाम है। जब प्रारब्ध प्रबल हो, तो ज्ञानी, बलवान और तपस्वी भी विवश हो जाते हैं। महाभारत का युद्ध होना निश्चित था, इसलिए वह हुआ। वेदव्यास जी ने आगे कहा, ‘होनी कोई अलग षक्ति नहीं है, वही हमारे कर्मों का परिपाक है। जब हमारे कर्मों का फल पक जाता है, तो वह होनी बनकर सामने आता है, जिसे कोई नहीं टाल सकता। इसलिए कहा गया है, होनी अटल है, और वह होकर ही रहती है।’
जनमेजय का तर्क सुनकर महामुनि वेदव्यास जी हंसने लगे और बोले, ‘पुत्र! यह सब होनी का खेल है, जो हो रहा है वह होकर रहता है, इसमें भला कोई क्या कर सकता है।’ जनमेजय ने प्रार्थना करते हुए कहा, ‘प्रभु अपराध क्षमा करें, जो भी भूतकाल में हुआ, सब होनी ने ही करवाया, मैं इस बात को नहीं मानता। आपने कहा, होनी प्रबल है, परन्तु यदि सब महापुरुष प्रयास करते तो घोर संघर्ष को निश्चित ही रोका जा सकता था।’ तब महामुनि ने कहा, ‘राजन! तुम क्या समझते हो, कि उस समय हम लोगों ने कुछ भी न किया होगा। इस हेतु बहुत सारे प्रयत्न किए गए, परन्तु होनी के आगे कुछ भी बस न चला। होनी के आगे हम सब भी विवश हो गए, हमारा कोई भी प्रयास सफल न हो पाया और महाभारत का युद्ध होकर ही रहा।’
होनी भी तो भाग्य अथवा प्रारब्ध का दूसरा नाम है, होनी उसे कहते हैं, जिसे किसी भी प्रकार नहीं टाला जा सकता। होनी अटल है और वह होकर रहती है। होनी ने बड़े-बड़े लोगों से ऐसे-ऐसे काम करवा डाले, जिन्हें कोई सपने में नहीं सोच सकता था। कर्म ही तो प्रारब्ध बनते हैं, होनी भी तो मनुष्य के अपने कर्मफलों का परिणाम है। जब प्रारब्ध प्रबल हो, तो ज्ञानी, बलवान और तपस्वी भी विवश हो जाते हैं। महाभारत का युद्ध होना निश्चित था, इसलिए वह हुआ। वेदव्यास जी ने आगे कहा, ‘होनी कोई अलग षक्ति नहीं है, वही हमारे कर्मों का परिपाक है। जब हमारे कर्मों का फल पक जाता है, तो वह होनी बनकर सामने आता है, जिसे कोई नहीं टाल सकता। इसलिए कहा गया है, होनी अटल है, और वह होकर ही रहती है।’
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